रंग मंच :: घर वापसी का गीत

11/15/2011
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घर वापसी का गीत

१३ नवंबर 2011 को जाने-माने निर्देशक प्रोबीर गुहा ने जमशेदपुर में अपने नाटक "घर वापसी का गीत" नाटक की प्रस्तुति दी. यह प्रस्तुति अपने आप में विशेष इसलिये भी थी कि इसका मंचन जमशेदपुर की जानी-मानी लेखिका, आलोचक विजय शर्माजी के घर की छत पर किया गया. इस आयोजन का उद्देश्य सिर्फ नाट्य-मंचन नहीं बल्कि मंचन के बाद प्रोबीरदा द्वारा किये जा रहे रंगकर्म से समाज को सही दिशा में ले जाने के उनके प्रयास से लोगों को परिचित करना भी था. यह भी प्रयास किया गया कि प्रस्तुति में उपस्थित दर्शकों की प्रोबीर गुहा के नाट्यकर्म से जुड़ी जिज्ञासा का समाधान खुद प्रोबीरदा कर सकें तथा उनसे प्रश्नोत्तर के माध्यम से उनके साथ संवाद स्थापित किया जा सके. काफी हद तक यह आयोजन अपने इस उद्देश्य में भी सफल रहा.
हमारे देश की "घर वापसी का गीत" दरअसल जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं, परेशानियों और मानवता से परे जाते समाज को वापस जन-सरोकारों से भरी आत्मीयता की तरफ लाने की कोशिश है. वर्तमान में मंदी, निजीकरण, औद्योगिकीकरण, ग्लोबलाइजेशन के प्रभाव से हमारे देश के कोने-कोने में किसान आत्महत्या की तरफ बढ़ रहे हैं कृषि-विकास की वृद्धि दर महज आंकड़ों में तब्दील होकर रह गया है. बढ़ती बेरोजगारी, भूखमरी, बालश्रम, स्त्रियों के शोषण से भरे समाज के विद्रूप चेहरे को परिभाषित करता नाटक, पढ़े-लिखे सभ्य समाज के वोटों की राजनीति और उसके वहशीपन का अक़्स दिखाता है. शुतुरमुर्ग की तरह तथाकथित सभ्य समाज की खतरे से बचने की कोशिश की तरफ भी यह नाटक इशारा करता है. प्रोबीरदा ने इस नाटक के माध्यम से एक ऐसी बिसात की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया जिसमें हर बाजी हारता है एक आमजन और जीतने वाला करता है G-1, G-10, G-20 सम्मेलन, करता है मुनाफाखोरी ,बढ़ाता है अपराध और ले जाता है बी पी एल जनसंख्या के ऊंचे ग्राफ की तरफ.
नाटक ने दर्शकों की रोज़मर्रा की बेचैनी को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम किया. आज़ादी के ६४ वर्षों बाद भी अपने देश में एक आम आदमी की आशायें, सपने, लक्ष्य और चाह को ढ़ूंढ़ती, टटोलती और सवाल उठाती प्रस्तुति अपने संप्रेषण में सार्थक रही. प्रोबीर दा पिछले ४७ वर्षों से अपने रंग सफर में नयी जटिलताओं, नये प्रश्नों के साथ निरंतर जूझ रहे हैं पर वे सवाल जो आम आदमी की ज़रूरतों से उपजे थे वो आज भी जस के तस उनकी आंखों में गड़ रहे हैं.
एक इंसान का दर्ज़ा पाने के लिये व्याकुल हमारे देश का प्रत्येक आम आदमी अपने कंधों पे बढ़ते बोझ की अंतहीन प्रक्रिया से बेहाल है. इस बदहाली को संप्रेषित करने के लिये किसी बंधे-बंधाये व्याकरण से जुदा प्रोबीर दा ने अपनी अलग रंगभाषा आविष्कृत कर थियेटर को समृद्ध किया है. उनके रंग-उपकरण, रंग-स्रोत, रंग-संगीत सब अपने आप में विशिष्ट हैं और उनके रंगयात्री भी अपने आप में अनूठे हैं. जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने वाले वंचित तबके के ये वे लोग हैं जो सभ्य-सुसंस्कृत भाषा, व्याकरण और मुहावरों से भले अपरिचित हों पर ये रंगयात्री ही प्रोबीर दा द्वारा स्वयं और दर्शकों के लिये विकसित की गयी रंग-वैचारिकी को सहज जीते हुए साकार करते हैं. उनके नाट्य-कर्म में जन-सरोकारों से जुड़ी बातों और विचारों को गंभीरता से उठाने की कोशिश की जाती है. उनके किसी भी नाटक के लिये 'मंच' कोई सीमा नहीं. उन्हें और उनके रंगकर्मियों को दर्शकों का अपार जन-समूह और मंच नहीं चाहिये बल्कि एक ऐसा जन-समूह चाहिये जो इन चिंताओं पे विचार कर अपने आप को इंसान बनने की दिशा में जुट सके और ऐसा स्पेस चाहिये जिसके घेरे के चारों तरफ दर्शक सीधे अभिनेताओं से रूबरू हो पाये. इंटीमेट थियेटर की ऐसी भाषा जिसे समझने के लिये किसी विशेष ज्ञान से ज्यादा संवेदनशील मन से भरे एक अदद इंसान की ज़रूरत पड़ती है.
बिना स्क्रिप्ट के सिर्फ विचारों और इमेजेस का आधार, कम से कम संवाद और रंग-उपकरण, एक मज़बूत माध्यम बनती अभिनेताओं की देह, अधिक से अधिक सुरों के उतार-चढ़ाव और संगीत के कई साज उनके नाटक की ऐसी विशेषतायें हैं जिनके द्वारा किसी नाटय-प्रस्तुति को तैयार करने में उन्हें कम से कम ३ से ४ महीने लग जाते हैं.  
हिंदी, बंगला और अंग्रेज़ी का सम्मिलित प्रयोग वे बिना किसी संकोच के अपने नाटक में करते हैं. लोक-रंग, लोक गीत के साथ-साथ प्रचलित धुनों का सही जगह पे इस्तेमाल जहां हममें खुशी की एक रेखा खींचती है वहीं देशसीमा लांघ दूसरे देशों में प्रयुक्त किये जाने वाले संगीत-वाद्य का प्रयोग भी हमें अचंभित करता है. इसके अलावा कवियों की आवाज़ को अपनी देह के माध्यम से उनके अभिनेता इस तरह अभिव्यक्त करते हैं कि कविता अपने में छिपे भावों, विचारों और लक्ष्य को सहजता से संप्रेषित करती है. पूरे नाटक में प्रोबीरदा के दर्द भरे आलाप और वाद्य-यंत्रों ने गीतों-कविताओं को मुखर बना उसे संप्रेषित करने में अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ा. छोटी-छोटी बेकार समझी जाने वाली चीज़ों का इस्तेमाल अपना अलग प्रभाव छोड़ती और उनकी समृद्ध रंग-दृष्टि से परिचित कराती है. हरी और सूखी पत्तियों द्वारा आशा और सपने, गुब्बारों द्वारा आकाश को छूने की चाह, दीपक द्वारा जीवन के अंधेरे को पार करना, पतंग से अपनी खुशी की अभिव्यक्ति बड़ी सहजता से हुई. इसके अलावे पालीथिन की थैलियों, प्लास्टिक की बेकार बोतलों, रस्सी और पानी के मटके जैसे प्रतीकों के प्रयोग ने अपना एक ख़ास प्रभाव छोड़ा. इस प्रस्तुति में भाग लेने वाले कलाकार थे- तपन, पन्ना, अभि, अफ़्तार, शिल्पी, मोहन, प्रतीक, अरूण और संगीत में स्वयं प्रोबीरदा.
मेरे आमंत्रण को स्नेहिल भाव से स्वीकार कर प्रोबीर दा ने जमशेदपुर के रंगकर्मियों, साहित्यकारों, कला-मर्मज्ञों और उपस्थित सभी दर्शकों को जागरूक बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान किया है. नाटक के उपरांत एक संक्षिप्त संवाद दर्शकों और प्रोबीर दा के मध्य हुआ. संसाधनों की कमी से शायद यह आयोजन इस तरह सफल और संपन्न नहीं होता अगर विजय जी और सत्यजी ने अपनी छत का प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी होती. इस आयोजन में रायगढ़ के कुछ रंगकर्मी भी शामिल हुए.
इससे पूर्व भी मैंने उनके नाटक मध्यमग्राम में जाकर देखे हैं. अपनी बात को शत-प्रतिशत दर्शकों तक पहुंचाने में उनकी हर प्रस्तुति की सफलता बयां करती है उनकी लंबी-कठिन रंग-यात्रा के प्रति प्रतिबद्धता. प्रोबीर दा का काम और प्रतिरोध करने का ये तरीका हमें सचेत करता है कि आशाओं और सपने के बगैर जीना सिर्फ एक जीती-जागती लाश के लिये संभव है. जब हम अन्याय-असमानता-उत्पीड़न के प्रतिरोध में स्वर उठायेंगे तब ही यह साबित होगा कि हममें कुछ सपने पल रहे हैं - हम जिंदा लाश नहीं, 'आम-आदमी' सही पर इंसान ज़रूर हैं. 
अर्पिता श्रीवास्तव





























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नबारुण भट्टाचार्य का काव्य पाठ

11/10/2011
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कविता लिखना बैंक खाता खोलना नहीं, वृहद संवाद स्थापित करना हैः नबारुण भट्टाचार्य -जन संस्कृति मंच ने बांगला के मशहूर कवि का कविता पाठ आयोजित किया, नई-पुरानी कविताओं का हुआ पाठ .नई दिल्ली .

कविता लिखना एक बैंक खाता खोलना नहीं है. कविता वृहद समाज से संवाद करने का जरिया है, इसे निजी गुफ्तगू-विमर्श का माध्यम नहीं बनाना चाहिए. वही कविता याद रखी जाती है जो अपने समय, समय के सवालों, चुनौतियों से मुखातिब होती है. आज के युवा कवियों के सामने इस बड़ी चुनौती को पेश किया बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार नबारुण भट्टाचार्य ने.

नबारुण ने कहा कि आज एक बार फिर मार्क्सवाद जी उठा है, अमेरिका से लेकर यूरोप में पूजीवाद के खिलाफ आक्रोश है और इसे रचनाकारों को समझना चाहिए. जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित उनके कविता पाठ के बाद हुई बातचीत में उन्होंने रचना कर्म, मार्क्सवाद और भविष्य की दिशा के बारे में खुलकर अपने विचार रखे.जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित इस कविता पाठ के कार्यक्रम में नबारुण की नई-पुरानी कविताओं का पाठ हुआ. नबारुण ने अपनी कविताओं का पाठ बांग्ला में किया औऱ उसके बाद उनका अंग्रेजी में तर्जुमा पढ़ा गया. कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदी के वरिष्ठ कवि-पत्रकार-अनुवादक त्रिनेत्र जोशी ने की और संचालन वरिष्ठ कवि अजय सिंह ने किया. कार्यक्रम की शुरुआत में अजय सिंह ने कहा कि नबारुण उस समय भी अपनी रचनाओं के साथ मार्क्सवाद के पक्ष में खड़े हुए जब पश्चिम बंगाल में मार्क्सवाद के खिलाफ मुहिम चल रही थी.

नबारुण ने अपनी प्रसिद्ध कविता-- कविता के बारे में कविता से शुरुआत की, जिसमें उन्होंने सीधे-धारदार शब्दों में कहा कि जो कविता गरीब-अपेक्षित आदमी के पक्ष में नहीं खड़ी होती उसकी कोई जमीन नहीं होती, वह कविता नहीं होती. इसके बाद उन्होंने फैज और अली सरदार जाफरी पर लिखी कविता का पाठ किया. नबारुण ने पूरे वेग और उत्साह के साथ अपनी बेहद लोकप्रिय कविता मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं—जब पढ़ी औऱ इसके बाद कवि नीलाभ ने उसका हिंदी तर्जुमा पढ़ा. हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने नबारुण की नई कविता का अनुवाद पढ़ा, जिसमें एक साबूत सवाल, गमक रही सेनिटरी संसद आदि प्रमुख थी. मंगलेश डबराल ने ही नबारुण की अधिकतर कविताओं का हिंदी में अनुवाद सुगम बनाया है.

मंगलेश जी ने कहा कि नबारुण की कविता जनपक्षधर कला और रचना की श्रेष्ठता, खूबसूरत बिंबों का विरला संगम है. मंगलेश डबराल के साथ इस अनुवाद में मदद करने वाली संस्कृतिकर्मी शंपा भट्टाचार्य ने भी उनकी नई कविता हे कवि, अपने को जानने की कविता, चिट्ठी पढ़ी. उनके बाद कवि अजंता देव ने अच्छी बनाम बुरी कविता का पाठ किया. हिंदी कवि शोभा सिंह, मुकुल सरल, रंजीत वर्मा ने भी कई कविताओं का पाठ किया. समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा, बीबीसी के राजेश जोशी, सुधीर सुमन ने भी नबारुण की कविता पढ़ी. त्रिनेत्र जोशी ने अध्यक्षतीय वक्तव्य में कहा कि नबारुण की कविता आज भी उसी तरह से जवान है, वैसी ही हरी है,जैसे वह सत्तर के दौर में थी. नबारुण की कविता मौजूदा दौर, जहां सारे विकल्प खत्म होते दिखाई देते हैं, वहां हमें हारने के विरुद्ध खड़ा करती है, संबल देती है.
भाषा सिंह






यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश :: नवारुण भट्टाचार्य


यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
जो पिता अपने बेटे की लाश की शिनाख़्त करने से डरे
मुझे घृणा है उससे
जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है
मुझे घृणा है उससे
जो शिक्षक बुद्धिजीवी, कवि, किरानी
दिन-दहाड़े हुई इस हत्या का
प्रतिशोध नहीं चाहता
मुझे घृणा है उससे

चेतना की बाट जोह रहे हैं आठ शव
मैं हतप्रभ हुआ जा रहा हूँ
आठ जोड़ा खुली आँखें मुझे घूरती हैं नींद में
मैं चीख़ उठता हूँ
वे मुझे बुलाती हैं समय- असमय ,बाग में
मैं पागल हो जाऊँगा
आत्म-हत्या कर लूँगा
जो मन में आए करूँगा

यही समय है कविता लिखने का
इश्तिहार पर,दीवार पर स्टेंसिल पर
अपने ख़ून से, आँसुओं से हड्डियों से कोलाज शैली में
अभी लिखी जा सकती है कविता
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षत मुँह से
आतंक के रू-ब-रू वैन की झुलसाने वाली हेड लाइट पर आँखें गड़ाए
अभी फेंकी जा सकती है कविता
38 बोर पिस्तौल या और जो कुछ हो हत्यारों के पास
उन सबको दरकिनार कर
अभी पढ़ी जा सकती है कविता

लॉक-अप के पथरीले हिमकक्ष में
चीर-फाड़ के लिए जलाए हुए पेट्रोमैक्स की रोशनी को कँपाते हुए
हत्यारों द्वारा संचालित न्यायालय में
झूठ अशिक्षा के विद्यालय में
शोषण और त्रास के राजतंत्र के भीतर
सामरिक असामरिक कर्णधारों के सीने में
कविता का प्रतिवाद गूँजने दो
बांग्लादेश के कवि भी तैयार रहें लोर्का की तरह
दम घोंट कर हत्या हो लाश गुम जाये
स्टेनगन की गोलियों से बदन छिल जाये-तैयार रहें
तब भी कविता के गाँवों से
कविता के शहर को घेरना बहुत ज़रूरी है

यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश

मैं छीन लाऊँगा अपने देश को
सीने मे‍ छिपा लूँगा कुहासे से भीगी कांस-संध्या और विसर्जन
शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार
या पहाड़-पहाड़ झूम खीती
अनगिनत हृदय,हरियाली,रूपकथा,फूल-नारी-नदी
एक-एक तारे का नाम लूँगा
डोलती हुई हवा,धूप के नीचे चमकती मछली की आँख जैसा ताल
प्रेम जिससे मैं जन्म से छिटका हूँ कई प्रकाश-वर्ष दूर
उसे भी बुलाउँगा पास क्रांति के उत्सव के दिन।

हज़ारों वाट की चमकती रोशनी आँखों में फेंक रात-दिन जिरह
नहीं मानती
नाख़ूनों में सुई बर्फ़ की सिल पर लिटाना
नहीं मानती
नाक से ख़ून बहने तक उल्टे लटकाना
नहीं मानती
होंठॊं पर बट दहकती सलाख़ से शरीर दाग़ना
नहीं मानती
धारदार चाबुक से क्षत-विक्षत लहूलुहान पीठ पर सहसा एल्कोहल
नहीं मानती
नग्न देह पर इलेक्ट्रिक शाक कुत्सित विकृत यौन अत्याचार
नहीं मानती
पीट-पीट हत्या कनपटी से रिवाल्वर सटाकर गोली मारना
नहीं मानती
कविता नहीं मानती किसी बाधा को
कविता सशस्त्र है कविता स्वाधीन है कविता निर्भीक है
ग़ौर से देखो: मायकोव्स्की,हिकमत,नेरुदा,अरागाँ, एलुआर
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
समूचा देश मिलकर एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है
छापामार छंदों में रचे जा रहे हैं सारे अलंकार

जो मृत्यु रात की ठंड में जलती बुदबुदाहट हो कर उभरती है
वह दिन वह युद्ध वह मृत्यु लाओ
रोक दें सेवेंथ फ़्लीट को सात नावों वाले मधुकर
शृंग और शंख बजाकर युद्ध की घोषना हो
रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फ़ोटक बारूद की मिट्टी-
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुंदरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीचड़ एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों?
संशय कैसा?
त्रास क्यों?

आठ जन स्पर्श कर रहे हैं
ग्रहण के अंधकार में फुसफुसा कर कहते हैं
कब कहाँ कैसा पहरा
उनके कंठ में हैं असंख्य तारापुंज-छायापथ-समुद्र
एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आने जाने का उत्तराधिकार
कविता की ज्वलंत मशाल
कविता का मोलोतोव कॉक्टेल
कविता की टॉलविन अग्नि-शिखा
आहुति दें अग्नि की इस आकांक्षा में.



(पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या कर धान की क्यारियों में फेंक दिया था। उनकी पीठ पर लिखा था देशद्रोही.)

(सौजन्य से -आशुतोष कुमार) 
 
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रंगमंच :'ओह ओह ये है इन्डिया' का पहला मंचन

11/06/2011
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५ नवंबर २०११ को रायगढ़ इप्टा द्वारा २५ दिवसीय कार्यशाला में तैयार  प्रवीण गुंजन के निर्देशन और कुमारदास टी एन  के कला निर्देशन में ’ओह ओह इंडिया’ की प्रस्तुति देखने का सौभाग्य मिला. नाटक की पहली प्रस्तुति और वो भी अपने कथ्य और कहन के अंदाज़ में नयी ऊर्जा से भरपूर. साम्प्रदायिकता,भ्रष्टाचार, भूख, आत्महत्या, शोषण और स्त्रियों की दुर्दशा को अपने तमाम  साजो-सामान से उच्चारित करता ये नाटक देश की अर्थव्यवस्था के बढ़ाते ग्राफ, महाशक्ति बनाने की दिशा में बढे कदम और विकास के प्रतिमान को ध्वस्त करता कई सवाल खडा करता है. जिसके जवाब हमें ढूँढने नहीं बल्कि देने हैं. ज़रुरत है खतरनाक चुप्पी को तोड़ने की. सदियों से लीक पे चली आ रही स्थापनाओं को विस्थापित करने की. सच है जब दर्द की इंतहा होती है ज़िन्दगी तमाम नकाब को बेनकाब करने पे उतारू ह़ो जाती है उसी बेनकाबी के उत्सव में ये नाटक अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हुआ है. 

'ओह ओह ये है इंडिया' नाटक के  नाम से ही प्रतिध्वनित ह़ो रही है देश के कच्चे-पके चिट्ठे की पोल .... मंच पे १७ रंगकर्मी  वृंदावन यादव, अपर्णा श्रीवास्तव, भरत निषाद, बाबू खान, ब्रजेश तिवारी, अभिषेक शर्मा, सुजाता सिंह, पूनम ध्रुव, आलोक बेरिया, सुचिता सिंह, साकेत कर्ष, दिलीप खैरवार, सिद्धांत बोहिदार, ऐश्वर्या राय, अमित दीक्षित, दीपक यादव और पार्थ राय ने अपनी सार्थक और सधी उपस्थिति का आभास दिया. कार्यशाला में विशेष सहयोग  रहा उषा आठले, अजय आठले, विनोद बोहिदार और हितेश पित्रोदा का. 

ऐसा नहीं है कि इससे पहले इस तरह की समस्याओं पे कोई प्रस्तुति नहीं हुई  पर इस प्रस्तुति की ख़ास बात ये है कि इसमें नवाचार यानी मल्टीमीडिया ध्वनि+दृश्य तकनीक के साथ-साथ जीवन की  सम-विषम धडकनों को सहेजती, काल की, अतीत की स्मृतियों को उभारती मानवीय संवेदनाओं से भरी कविताओं का  समन्वय है. मुक्तिबोध, अदम गोंडवी, कैफी आज़मी और प्रज्ञा रावत की कविताओं का सार्थक प्रयोग नाटक के कथ्य सम्प्रेषण  में प्रभावकारी  रहा.   

कई तरह के प्रतीकों [यथा हाथ में बंधी पट्टी, लालटेन, फैशन परेड बोतल और पिंजरे   का] का सहज समावेश है जो हमें आज के समय में सोचने के लिए मजबूर करता है जबकि हम परोसी हुई वैचारिक दुनिया में जी रहें हैं वहाँ ये नाटक हमें कई अंधेरी गुफाओं में यूं सैर कराता है जैसे हम नाटक में नहीं बल्कि अपने वर्तमान को जी रहें हैं कभी किसानों की आत्महत्या के रूप में, कभी साम्प्रदायिक दंगो के रूप में, कभी जातिवादी संकीर्णताओ के बीच तो कभी इन सबके साथ स्त्रियों को दमित कर अपनी क्रूरता के बीच. सच! सुस्त विचार प्रक्रिया को झकझोरने का एक विश्वास भरा आह्वान रहा निर्देशक का. आज जब ये बहस गाहे-बगाहे नाटक करने वालों के बीच होती रहती है कि नाटक के लिए नाटककार कुछ नहीं कर रहे, नयी स्क्रिप्ट के न होने का रोना रोकर अपने कर्तव्य को निर्देशक और नाट्यकर्मी पूरा  करते  हैं वैसे समय में आपसी बहस को रंग दिशा देने का सराहनीय प्रयास रहा रायगढ़ के नाट्यकर्मियों और निर्देशक का. 

एक और ख़ास बात ये रही कि कहीं भी नाटक दर्शकों की  विचार-भूमि में घुसपैठ किये बगैर कि समस्याओं से कैसे निपटना है मात्र सवाल खड़े करता है वो भी नए ज़माने की लय में डोट डोट डोट कह के. ये इस सदी  का भयावह सच है कि आने वाले समय में हम किसी बात, किसी काम या किसी विचार पे डोट यानी पूर्णविराम नहीं लगायेंगे बल्कि डोट डोट डोट लिख अपनी वैचारिक और संस्कृतिक अपंगता की दिशा को रौशन कराते चले जायेंगे. बड़ी सूक्ष्मता से हर समस्या के प्रश्न के समय ये शब्द डोट, डोट, डोट इस्तेमाल किये गए हैं किसी विष बूझे तीर की तरह.

मुक्तिबोध पुरुस्कार से सम्मानित लेखक, कवि, आलोचक और  इप्टा के संरक्षक प्रभात दा [त्रिपाठी] भी उपस्थित थे जिनके सान्निध्य में रायगढ़  इप्टा लगातार विचार-विमर्श करता रहता है.... 

अर्पिता श्रीवास्तव









































































































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2021 : विष्णु खरे स्मृति सम्मान : आलोचना और अनुवाद

2021 में यह सम्मान आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र मे 2018 , 19 , 20 तक प्रकाशित रचनाओं को प्रदान किया जाएगा.

चयन में आपका स्वागत है

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